बलौदाबाजार की शाला का गड़बड़झाला
राज्य का शिक्षा विभाग लगातार गा रहा है विकास का राग। तो वहीं बलौदाबाजार की प्राथमिक शाला का बड़ा गड़बड़झाला सुनकर चौंक जाएंगे आप कि यहां पिछले तीन सालों में 26 हजार बच्चों ने किया सरकारी स्कूलों से तौबा। यहां न तो ढंग से पढ़ाई होती है और न मिलता है गुणवत्तायुक्त खाना। बच्चे कहते हैं तो फिर क्यों वहां पढऩे जाना? शिक्षा के अधिकार का बंटाधार करने में खुद सरकारी शालाओं के जिम्मेदार अधिकारी ही लगे हुए हैं। जब दफ्तरों में ही बैठे-बैठे ये लोग करेंगे कागज काला तो फिर ऐसे ही खाली होती रहेगी सरकारी पाठशाला।
सरकारी पाठशालाओं में शिक्षा लेने की नहीं होती इच्छा,3 साल में घट गए 26 हजार बच्चे,
बलौदाबाजार।
शिक्षा की गुणवत्ता पर भी सियासत-
केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी को छत्तीसगढ़ की शालाओं का सेलिबस भले ही पसंद आया हो, मगर असलियत ये है कि यहां कोर्स की किताबों में गलतियों की भरमार पाई जाती रही है। इसी राज्य की किताबों में नेताजी सुभाष चंद्र बोस को उग्रवादी तो गुरुबाबा घासीदास को हरिजन और राष्ट्रगान में भी गलतियों सहित तमाम गलतियां पाई गई थीं। ऐसे में सवाल तो ये है कि उस राज्य के सेलिबस में ऐसा क्या था जो केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री को इतना ज्यादा पसंद आया?
क्या कहते हैं आंकड़े-
आंकडों पर नजर डालें तो सरकारी स्कूलों में पढने वाले बच्चों की संख्या साल दर साल कम हो रहीं हैं। पिछले तीन सालों में जिले के शासकीय स्कूल में दर्ज संख्या में 26767 बच्चों की गिरावट आई हैं। वहीं 2016-17 के चालू सत्र में अभी तक प्राथमिक के 1 लाख 27 हजार 458 तथा मिडिल के 76 हजार 886 बच्चों को मिलाकर कुल दर्ज संख्या 2लाख, 04344 ही रह गई है। जो कि 2012-13 की दर्ज संख्या से 29 हजार 796 कम है। वर्ष 2012-13 में सरकारी स्कूलों में प्राइमरी व मिडिल कक्षाओं में विद्यार्थिओं की संख्या 2 लाख 34 हजार 140 थी। वर्ष 2013-14 में घटकर यह संख्या 2 लाख 24 हजार हो गई ।
बच्चे नहीं लिख पा रहे पालकों का नाम-
सरकारी स्कूल में शिक्षा के स्तर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्राथमिक स्तर के विधार्थी अपना व अपने पिता का सहीें ढंग से नाम लिखना तक नहीं जानते। कागजी आंकड़ों पर तो साक्षरता का स्तर बढ रही है बच्चे पढ रहे हैं लेकिन वास्तविक यह है कि उन्हें वो शिक्षा नहीें मिल पा रही है जिसकी उनको वास्तव में जरूरत है।
सरकारी स्कूल बन गए दाल भात सेंटर
पालक व शहरवासियों का कहना है कि पढाई के लिए बेहतर वातावरण के अभाव में सरकारी स्कूल अब दाल भात सेंटर बन गए है। जहां दो पीरिएड बाद घंटी बजते ही बच्चे हाथ में थाली पकड़कर भोजन के लिए लाइन लगाते हैं थाली बजाते रहते हैं। दूसरी ओर सरकारी स्कूलों में अनुभवी व योग्य शिक्षकों की कमी के कारण इन स्कूलों से पढकर निकलने वाले बच्चे आगे चलकर पिछड जाते हैं।
शिक्षकों को 5 से 10 गुना ज्यादा वेतन
शासकीय शालाओं में शिक्षकों में निजी शालाओं के शिक्षकों से 50 से 10 गुना ज्यादा वेतन मिलता है। बावजूद इसके शासकीय स्कूलों के शिक्षकों में दायित्व बोध की कमी है। जबकि निजी शालाओं में शिक्षक दोनों कमियों को पूरा करते अल्प वेतन मे भी अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं।
क्या कहते हैं आंकड़े-
वर्ष शासकीय अशासकीय योग प्राथमिक शाला
2012-13 146568 24028 170596
2013-14 139255 27499 166754
2014-15 133426 31159 164585
2015-16 125336 125336
माध्यमिक शाला
2013-14 85261 11132 96393
2014-15 82413 12421 94834
2015-16 82037 82037
आठवीं का बच्चा नहीं लिख सका संध्या-
राज्य के एक आला पुलिस अधिकारी प्रदेश की ही एक शाला में गुणवत्ता परीक्षण के लिए पहुंचे। वहां की हालत देखकर उनको बेहद तकलीफ हुई। वहां आठवीं के बच्चे संध्या नहीं लिख सके। तो वहीं अध्यापक टेलीविजन की स्पेलिंग तक नहीं लिख पाए। अब ऐसी शिक्षा व्यवस्था को कोई भला क्या कहेगा?
मुख्यमंत्री के सामने बच्चा नहीं पढ़ पाया पहाड़ा-
लोक सुराज यात्रा के दौरान महासमुंद में राज्य सरकार के अधिकारी और कर्मचारी उस वक्त हक्के-बक्के रह गए जब पांचवीं का बच्चा पांच का ही पहाड़ा नहीं पढ़ पाया था। उस वक्त सीएम ने भी माना था कि प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था बदहाल हो चुकी है।
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