गरीबों के साथ सरकारी मजाक





सुराज की सरकार लगातार स्वास्थ्य विभाग को लेकर दावे पर दावे किए जा रही है। कभी जेनेरिक दवाओं की तो कभी अच्छी सेवाओं की। आलम ये है कि प्रदेश के सबसे बड़े अस्पताल में हर साल  5 या 6 मरीज तो यहां के स्टॉफ के खराब व्यवहार के चलते आत्महत्या कर लेते हैं। हर साल बजट में स्वास्थ्य विभाग के लिए एक मोटी रकम खर्च के लिए प्रस्तावित होती है। उसका आवंटन भी होता है,मगर मुफ्त दवाएं कितने लोगों को मिलती हैं? इसका कोई भी आंकड़ा सरकार और उसके ईमानदार अधिकारियों के पास नहीं है। सातवां वेतनमान तो दे दिया गया मगर जिम्मेदारी कौन देगा? ये सवाल हवा में पेंडुलम की तरह झूल रहा है। जब राज्य के डॉक्टर ही अपने प्रदेश के मुखिया डॉक्टर का आदेश नहीं मानते, तो भला आम आदमी की कितनी सुनते होंगे? डॉक्टर रमन सिंह ने पच्चीस बार से ज्यादा ये बात दुहराई होगी कि प्रदेश के सरकार डॉक्टर जेनेरिक दवाएं लिखें और अस्पतालों में ही जेनेरिक दवाओं के मेडिकल स्टोर्स लगाए जाएं। ये घोषणाएं भी हवाहवाई ही साबित हुईं। प्रदेश के सबसे बड़े अस्पताल तक में जेनेरिक दवाएं नहीं दी जातीं। गांवों के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में तो क्या खाक मिलेंगी? मौत गरीबों के बच्चों की नियति बन चुकी है, लापवाही अधिकारियों की आदत। ऐसे में स्वास्थ्य विभाग से किसी बड़े बदलाव की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। स्वास्थ्य मंत्री महीने में पांच बार कुरुद गए लेकिन जिस मैनपाट में 3 सौ से ज्यादा आदिवासियों की मौत डायरिया से हो गई वहां आज तक दौरा करने नहीं गए? अब जब इतना योग्य मंत्री जहां हो तो वहां के स्टॉफ और डॉक्टर्स से भला आप क्या उम्मीद लगा सकते हैं।
गरीबों को यहां न तो एम्बुलेंस मिलती हैं और न डॉक्टर नर्स तथा सरकारी दवाएं। अब इससे ज्यादा राज्य सरकार की और कौन-कौन सी कमियां बताएं? कुल मिलाकर आदिवासियों के नाम पर जमकर काली कमाई का तमाशा खेला जा रहा है। राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र कहे जाने वाले आदिवासियों की तो राजधानी में दशा और दिशा दोनों ही खराब दिखाई देती है। अगर इनकी इस स्थिति पर तत्काल रोक नहीं लगाई गई तो आने वाले दिनों में ये समस्या एक विकराल रूप ले लेगी।
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