आदत से लाचार पत्रकार
खटर-पटर-
निखट्टू-
संतों.... एक बार एक बूढ़े से एक युवा ने पूछा कि बाबा...अगर आपके सामने दुनिया का सबसे खतरनाक शेर आ जाए तो आप क्या करोगे? बूढ़े ने कहा भैया... मेरे करने को फिर बचा ही क्या? अरे जो करना होगा वो शेर ही करेगा। युवक से नहीं रहा गया उसने फिर बुजुर्ग इंसान से बोला अगर आपके सामने भारतीय अदाकारा रेखा आ जाएं तो आप क्या करोगे? बूढ़े ने युवक से कहा इस बार पहले तुम बताओ कि क्या करोगे? लड़के ने कहा मैं उनको घुमाऊंगा, किसी अच्छे रेस्टोरेंट में ले जाकर खाना खिलाऊंगा। इसके बाद ऑटोग्राफ लूंगा और फिर घर जाऊंगा। अब बाबा आप बताओ..... बूढ़े ने कहा कि तुमने तब किया ही क्या....अरे तुम से ज्यादा तो मैं कर सकता हूं रेखा जी के लिए। युवक ने कहा बताओ बाबा आप क्या करोगे? बूढ़े ने कहा...मैं पहले दस मिनट उनको देखूंगा। युवक ने पूछा उसके बाद.... बूढ़े ने कहा फिर 15 मिनट देखूंगा। युवक ने कहा उसके बाद....बूढ़े ने कहा फिर ......आधे घंटे देखूंगा। युवक को गुस्सा आ गया बोला कुछ आगे भी बोलोगे कि क्या करोगे.....बूढ़े ने कहा बस देखता ही रहूंगा और क्या....? हां अगर जल्दी जाना चाहेगी तो आशीर्वाद और दे दूंगा?.... हमारे देश की मीडिया की भी हालत ऐसी ही है। इनको देखने की लत लग चुकी है। हालांकि इनकी इसी लत की वजह से इनकी ज़लालत और मलामत भी हो रही है, मगर भाईसाहब हैं कि इसको छोडऩे को तैयार दिखाई ही नहीं देते? समझ में नहीं आता कि आखिर ऐसा माज़रा क्या है?
दाना मांझी जब अपनी पत्नी की लाश लेकर पैदल चल रहा था तो मीडिया वाले भी उसके साथ थे, मगर किसी ने भी अपनी गाड़ी उसको नहीं दी। अलबत्ता उसकी रिकार्डिंग करते रहे। ऐसा ही एक नज़ारा उस वक्त राजधानी रायपुर में देखने को मिला था जब जगदलपुर में हुई मुठभेड़ में घायल एक सुरक्षाबल के जवान को इलाज के लिए यहां के एक अस्पताल में लाया गया। उसे एम्बुलेंस से उतारा जा ही रहा था कि एक मीडिया चैनल के विद्वान संवाददाता ने स्पीकर उसके सामने ठेल दिया। उसकी पीड़ा की परवाह न करते हुए सीधे सवाल भी ठोक दिया? बस्तर को माओवादियों से कब तक खाली करा लिया जाएगा? सुनकर जो भी वहां खड़ा था जलभुन गया। मगर साहब भी कम नहीं थे, उसकी आवाज नहीं निकल रही थीं और वे लगातार सवाल पर सवाल पेले पड़े थे। ऐसे में मजबूरन वहां मौजूद लोगों को हस्तक्षेप करना पड़ा। मीडिया की हालत आजकल यही हो गई है। बाजार में दलाली करने वाले संवाददाताओं का चलन थोड़ा ज्यादा होता जा रहा है। वसूली करने वाले अखबार के संपादकों से लेकर मालिकों तक की तादाद भी कम नहीं है। सरकार को तो ये ऐसे नोंचते हैं और आम जनता के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचते हैं। ऐसे स्वनामधन्य लोगों के नक् शे कदम पर पत्रकारिता आजकल चल रही है।
जो पत्रकार दूसरों की मजदूरी दिलवाने के लिए मुहिम पर मुहिम चलाए रहते थे। आज उनके वेतनमान के लिए कोई कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है। न तो सरकार और न ही अखबार के मालिक। ऐसे में अब उनका तो भगवान ही मालिक है। कुल मिलाकर यहां भी देखने वाली फितरत ही काम कर रही है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की भाषा में हम देख रहे हैं, देखते हैं और देखेंगे। तो समझ गए न सर.....अब हम भी निकल लेते हैं अपने घर। तो कल फिर आपसे मुलाकात होगी तब तक के लिए जय....जय।
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निखट्टू-
संतों.... एक बार एक बूढ़े से एक युवा ने पूछा कि बाबा...अगर आपके सामने दुनिया का सबसे खतरनाक शेर आ जाए तो आप क्या करोगे? बूढ़े ने कहा भैया... मेरे करने को फिर बचा ही क्या? अरे जो करना होगा वो शेर ही करेगा। युवक से नहीं रहा गया उसने फिर बुजुर्ग इंसान से बोला अगर आपके सामने भारतीय अदाकारा रेखा आ जाएं तो आप क्या करोगे? बूढ़े ने युवक से कहा इस बार पहले तुम बताओ कि क्या करोगे? लड़के ने कहा मैं उनको घुमाऊंगा, किसी अच्छे रेस्टोरेंट में ले जाकर खाना खिलाऊंगा। इसके बाद ऑटोग्राफ लूंगा और फिर घर जाऊंगा। अब बाबा आप बताओ..... बूढ़े ने कहा कि तुमने तब किया ही क्या....अरे तुम से ज्यादा तो मैं कर सकता हूं रेखा जी के लिए। युवक ने कहा बताओ बाबा आप क्या करोगे? बूढ़े ने कहा...मैं पहले दस मिनट उनको देखूंगा। युवक ने पूछा उसके बाद.... बूढ़े ने कहा फिर 15 मिनट देखूंगा। युवक ने कहा उसके बाद....बूढ़े ने कहा फिर ......आधे घंटे देखूंगा। युवक को गुस्सा आ गया बोला कुछ आगे भी बोलोगे कि क्या करोगे.....बूढ़े ने कहा बस देखता ही रहूंगा और क्या....? हां अगर जल्दी जाना चाहेगी तो आशीर्वाद और दे दूंगा?.... हमारे देश की मीडिया की भी हालत ऐसी ही है। इनको देखने की लत लग चुकी है। हालांकि इनकी इसी लत की वजह से इनकी ज़लालत और मलामत भी हो रही है, मगर भाईसाहब हैं कि इसको छोडऩे को तैयार दिखाई ही नहीं देते? समझ में नहीं आता कि आखिर ऐसा माज़रा क्या है?
दाना मांझी जब अपनी पत्नी की लाश लेकर पैदल चल रहा था तो मीडिया वाले भी उसके साथ थे, मगर किसी ने भी अपनी गाड़ी उसको नहीं दी। अलबत्ता उसकी रिकार्डिंग करते रहे। ऐसा ही एक नज़ारा उस वक्त राजधानी रायपुर में देखने को मिला था जब जगदलपुर में हुई मुठभेड़ में घायल एक सुरक्षाबल के जवान को इलाज के लिए यहां के एक अस्पताल में लाया गया। उसे एम्बुलेंस से उतारा जा ही रहा था कि एक मीडिया चैनल के विद्वान संवाददाता ने स्पीकर उसके सामने ठेल दिया। उसकी पीड़ा की परवाह न करते हुए सीधे सवाल भी ठोक दिया? बस्तर को माओवादियों से कब तक खाली करा लिया जाएगा? सुनकर जो भी वहां खड़ा था जलभुन गया। मगर साहब भी कम नहीं थे, उसकी आवाज नहीं निकल रही थीं और वे लगातार सवाल पर सवाल पेले पड़े थे। ऐसे में मजबूरन वहां मौजूद लोगों को हस्तक्षेप करना पड़ा। मीडिया की हालत आजकल यही हो गई है। बाजार में दलाली करने वाले संवाददाताओं का चलन थोड़ा ज्यादा होता जा रहा है। वसूली करने वाले अखबार के संपादकों से लेकर मालिकों तक की तादाद भी कम नहीं है। सरकार को तो ये ऐसे नोंचते हैं और आम जनता के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचते हैं। ऐसे स्वनामधन्य लोगों के नक् शे कदम पर पत्रकारिता आजकल चल रही है।
जो पत्रकार दूसरों की मजदूरी दिलवाने के लिए मुहिम पर मुहिम चलाए रहते थे। आज उनके वेतनमान के लिए कोई कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है। न तो सरकार और न ही अखबार के मालिक। ऐसे में अब उनका तो भगवान ही मालिक है। कुल मिलाकर यहां भी देखने वाली फितरत ही काम कर रही है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की भाषा में हम देख रहे हैं, देखते हैं और देखेंगे। तो समझ गए न सर.....अब हम भी निकल लेते हैं अपने घर। तो कल फिर आपसे मुलाकात होगी तब तक के लिए जय....जय।
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