सियासी पतन के जतन
-कटाक्ष-
निखट्टू-
खेलोगे कूदोगे होगे खराब, पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब। बचपन में ये कहावत खूब चलती थी। हमारे घर में हम लोगों को पढऩे बैठने के लिए हमारी दादी अम्मा इसी का इस्तेमाल करती थीं। यहां तो अब उल्टा होना शुरू हो गया है। बेचारे पढ़े-लिखे बेरोजगार होकर सड़कों पर भटक रहे हैं और अच्छा खेलने वाले नवाब बने दूरदर्शन के कैमरे के आगे मटक रहे हैं। सियासत के बड़े-बड़े दिग्गज भी उनका ट्रैक सूट पकड़ कर लटक रहे हैं। वो नेता जो हमारे बच्चों पर चटकते हैं वहीं इन खिलाडिय़ों के आगे मटकते हैं। मुद्दों को छोड़कर मुद्दई को ले जाकर चौराहे पर पटकते हैं। इसी का नाम राजनीति है। दुनिया के सबसे ज्यादा नेता भारत में हैं। दूसरे देशों में लोगों के पास सियासत में जाने का वक्त ही नहीं है। वहीं हमारे देश में लोगों को सियासत से निकलने की फुर्सत नहीं है। कितनी भी सांसत भोग लेंगे मगर मजाल क्या जो सियासत छोड़ दें। अरे हमारे लोकतंत्र की राजनीति में तो ऐसे -ऐसे बाकमाल पड़े हैं जो सौ-सौ जूते खांय तमाशा घुस के देखें। अगर य$कीन न हो तो किसी पार्टी के दफ्तर में चुनाव के समय कुछ रोज आप भी तशरीफ ले जाकर देख लीजिए। हुज़ूर का वहम मिट जाएगा। इसके साथ ही ये भी अकल आ जाएगी कि हमारे देश के सियासतदां कितने खुदगर्ज़ हैं। जनता-वनता को कोई नहीं पूछता सब को अपने-अपने टिकट की पड़ी रहती है। ऐसे में जिसकी टिकट मिल गई तो कोई बात नहीं। अगर नहीं मिली तो फिर पार्टी बुरी, उसकी नीतियां बुरी, कार्यकर्ता खराब, गलती से आकर फंसे रह गए जैसे तमाम जुमले सुनने को मिलेंगे। यही कारण है कि आजादी के छह दशकों के बाद भी देश की राजनीति में कोई खास सुधार नहीं आया। पहले की राजनीति के कुछ नैतिक मूल्य हुआ करते थे। आज तो आलम ये है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। कुछ लोग तो अब बहन-बेटियों तक को गालियां बकने से परहेज नहीं करते। ये इस देश की राजनीति का शर्मनाक चेहरा है। दु:ख होता है ये बताते हुए कि एक ओर एक पार्टी विशेष के लोग पार्टी विशेष की बहन-बेटी और मां तक को नहीं बख्शते। ऐसे में तो सवाल यही उठता है कि सियासत का ये पतन आखिर कहां जाकर ठहरेगा। क्या कोई ऐसा भी है जो इस पतन को रोकने की जतन भी करेगा? सियासत के इस पतन को देखकर अब लगने लगा है मुझे डर..... प्लीज आप लोग कुछ ऐसा कीजिए कि ये लोग जाएं सुधर। तो इसी के साथ ही अब मैं भी निकल लेता हूं घर...कल फिर आपसे मुलाकात होगी तब तक के लिए जय...जय।
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निखट्टू-
खेलोगे कूदोगे होगे खराब, पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब। बचपन में ये कहावत खूब चलती थी। हमारे घर में हम लोगों को पढऩे बैठने के लिए हमारी दादी अम्मा इसी का इस्तेमाल करती थीं। यहां तो अब उल्टा होना शुरू हो गया है। बेचारे पढ़े-लिखे बेरोजगार होकर सड़कों पर भटक रहे हैं और अच्छा खेलने वाले नवाब बने दूरदर्शन के कैमरे के आगे मटक रहे हैं। सियासत के बड़े-बड़े दिग्गज भी उनका ट्रैक सूट पकड़ कर लटक रहे हैं। वो नेता जो हमारे बच्चों पर चटकते हैं वहीं इन खिलाडिय़ों के आगे मटकते हैं। मुद्दों को छोड़कर मुद्दई को ले जाकर चौराहे पर पटकते हैं। इसी का नाम राजनीति है। दुनिया के सबसे ज्यादा नेता भारत में हैं। दूसरे देशों में लोगों के पास सियासत में जाने का वक्त ही नहीं है। वहीं हमारे देश में लोगों को सियासत से निकलने की फुर्सत नहीं है। कितनी भी सांसत भोग लेंगे मगर मजाल क्या जो सियासत छोड़ दें। अरे हमारे लोकतंत्र की राजनीति में तो ऐसे -ऐसे बाकमाल पड़े हैं जो सौ-सौ जूते खांय तमाशा घुस के देखें। अगर य$कीन न हो तो किसी पार्टी के दफ्तर में चुनाव के समय कुछ रोज आप भी तशरीफ ले जाकर देख लीजिए। हुज़ूर का वहम मिट जाएगा। इसके साथ ही ये भी अकल आ जाएगी कि हमारे देश के सियासतदां कितने खुदगर्ज़ हैं। जनता-वनता को कोई नहीं पूछता सब को अपने-अपने टिकट की पड़ी रहती है। ऐसे में जिसकी टिकट मिल गई तो कोई बात नहीं। अगर नहीं मिली तो फिर पार्टी बुरी, उसकी नीतियां बुरी, कार्यकर्ता खराब, गलती से आकर फंसे रह गए जैसे तमाम जुमले सुनने को मिलेंगे। यही कारण है कि आजादी के छह दशकों के बाद भी देश की राजनीति में कोई खास सुधार नहीं आया। पहले की राजनीति के कुछ नैतिक मूल्य हुआ करते थे। आज तो आलम ये है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। कुछ लोग तो अब बहन-बेटियों तक को गालियां बकने से परहेज नहीं करते। ये इस देश की राजनीति का शर्मनाक चेहरा है। दु:ख होता है ये बताते हुए कि एक ओर एक पार्टी विशेष के लोग पार्टी विशेष की बहन-बेटी और मां तक को नहीं बख्शते। ऐसे में तो सवाल यही उठता है कि सियासत का ये पतन आखिर कहां जाकर ठहरेगा। क्या कोई ऐसा भी है जो इस पतन को रोकने की जतन भी करेगा? सियासत के इस पतन को देखकर अब लगने लगा है मुझे डर..... प्लीज आप लोग कुछ ऐसा कीजिए कि ये लोग जाएं सुधर। तो इसी के साथ ही अब मैं भी निकल लेता हूं घर...कल फिर आपसे मुलाकात होगी तब तक के लिए जय...जय।
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