भाषा की आशा
खटर-पटर
निखट्टू-
संतों.......अपनी बोली अपनी भाषा हिंदी को राजकाज की भाषा कहा जाता है, मगर इसकी सच्चाई ये है कि अगर कोई कोलकाता में किसी थाने मेें हिंदी में लिखकर एक आवेदन दे-दे तो पुलिस वाला तत्काल फाड़कर उसको रद्दी की टोकरी में फेंक देगा। हिंदी राजकाज की भाषा तो महज कहने भर को है। अलबत्ता साल भर में एक पखवाड़े भर आप हिंदी के नाम रंडऱोवन जरूर रो सकते हैं। इसके बाद तो भूलकर भी आप हिंदी का पैरोकार बनने की भूल मत करना, वर्ना अंग्रेजी के झंडाबरदार आपको ले जाकर भक्तिकाल में पटक देंगे। हो सकता है आपके ऊपर देशद्रोह का मुकदमा भी ठोंक दें। अंग्रेजी इनको भले ही कायदे से न आए मगर हिंदी नहीं सीखेंगे बस। कुछ लोग तो ये भी तर्क देते हैं कि हिंदी मजदूर और किसान वर्ग के लोग बोलते हैं। ये जाहिलों और गंवारों की भाषा है। टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने वाले ऐसे लोग खुद को बड़ा सभ्य और एरिस्ट्रोक्रेट समझते हैं। किसी को अंग्रेजी में डांट देना बड़प्पन का पर्याय माना जाता है। अलबत्ता उन लोगों को सलीके की हिंदी नहीं आती ये बात भी स्पष्ट है। इनका तर्क है कि अंग्रेजी भद्र लोगों की भाषा है। तो वहीं हिंदी के समाचार पत्रों में तो इसी हालत और भी पंक्चर हो चुकी है। बड़े-बड़े स्वनामधन्य सह संपादक से लेकर संपादकों तक की राय है कि हिंदी को बिना व्याकरण के लिखा जाए। इसको इतना सरल बना दिया जाए कि उसको हर कोई आसानी से समझ सके। आलम ये है कि रिक् शेवाले इस हिंदी को देखकर आपस में ठहाके लगाकर हंसते हैं। क्योंकि उनकी हिंदी उस सह संपादक के हिंदी ज्ञान से ज्यादा अच्छी है। कुछ ऐसे ही सह संपादक और संपादक भाषा की भूसी छुड़ाने पर तुले हैं। रविंद्रनाथ ठाकुर ने कहा था कि भाषा को अगर लोकप्रिय बनाना चाहते हो तो उसमें साहित्य पैदा करो। तो हमारे ये संपादक कहते हैं कि समाचारों की भाषा सपाट हो और उसमें साहित्य बिल्कुल भी न हो। अब ऐसे संपादकों से कौन पूछे कि मान्यवर एक विधवा को आप कितनी देर तक देखना चाहेंगे? बिना साहित्य के मनुष्य बिना सींग और पूंछ के पशु की तरह हो जाता है। ये हमारा दर्शन शास्त्र कहता है। इनके इस आचरण से हिंदी भाषा भविष्य में सुधर जाएगी, ऐसी आशा तो हम लोग काफी दिनों से छोड़ चुके हैं। मां सरस्वती करें वो दिन जल्दी आए जिस दिन देश का हर बच्चा हिंदी में बात करे। हिंदी पढ़े और लिखे। काश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ही भाषा हो सिर्फ और सिर्फ हिंदी। तो क्यों....समझ गए न सर.... तो अब हम भी निकल लेते हैं अपने घर। तो कल फिर आपसे मुलाकात होगी तब तक के लिए जै....जै।
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निखट्टू-
संतों.......अपनी बोली अपनी भाषा हिंदी को राजकाज की भाषा कहा जाता है, मगर इसकी सच्चाई ये है कि अगर कोई कोलकाता में किसी थाने मेें हिंदी में लिखकर एक आवेदन दे-दे तो पुलिस वाला तत्काल फाड़कर उसको रद्दी की टोकरी में फेंक देगा। हिंदी राजकाज की भाषा तो महज कहने भर को है। अलबत्ता साल भर में एक पखवाड़े भर आप हिंदी के नाम रंडऱोवन जरूर रो सकते हैं। इसके बाद तो भूलकर भी आप हिंदी का पैरोकार बनने की भूल मत करना, वर्ना अंग्रेजी के झंडाबरदार आपको ले जाकर भक्तिकाल में पटक देंगे। हो सकता है आपके ऊपर देशद्रोह का मुकदमा भी ठोंक दें। अंग्रेजी इनको भले ही कायदे से न आए मगर हिंदी नहीं सीखेंगे बस। कुछ लोग तो ये भी तर्क देते हैं कि हिंदी मजदूर और किसान वर्ग के लोग बोलते हैं। ये जाहिलों और गंवारों की भाषा है। टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने वाले ऐसे लोग खुद को बड़ा सभ्य और एरिस्ट्रोक्रेट समझते हैं। किसी को अंग्रेजी में डांट देना बड़प्पन का पर्याय माना जाता है। अलबत्ता उन लोगों को सलीके की हिंदी नहीं आती ये बात भी स्पष्ट है। इनका तर्क है कि अंग्रेजी भद्र लोगों की भाषा है। तो वहीं हिंदी के समाचार पत्रों में तो इसी हालत और भी पंक्चर हो चुकी है। बड़े-बड़े स्वनामधन्य सह संपादक से लेकर संपादकों तक की राय है कि हिंदी को बिना व्याकरण के लिखा जाए। इसको इतना सरल बना दिया जाए कि उसको हर कोई आसानी से समझ सके। आलम ये है कि रिक् शेवाले इस हिंदी को देखकर आपस में ठहाके लगाकर हंसते हैं। क्योंकि उनकी हिंदी उस सह संपादक के हिंदी ज्ञान से ज्यादा अच्छी है। कुछ ऐसे ही सह संपादक और संपादक भाषा की भूसी छुड़ाने पर तुले हैं। रविंद्रनाथ ठाकुर ने कहा था कि भाषा को अगर लोकप्रिय बनाना चाहते हो तो उसमें साहित्य पैदा करो। तो हमारे ये संपादक कहते हैं कि समाचारों की भाषा सपाट हो और उसमें साहित्य बिल्कुल भी न हो। अब ऐसे संपादकों से कौन पूछे कि मान्यवर एक विधवा को आप कितनी देर तक देखना चाहेंगे? बिना साहित्य के मनुष्य बिना सींग और पूंछ के पशु की तरह हो जाता है। ये हमारा दर्शन शास्त्र कहता है। इनके इस आचरण से हिंदी भाषा भविष्य में सुधर जाएगी, ऐसी आशा तो हम लोग काफी दिनों से छोड़ चुके हैं। मां सरस्वती करें वो दिन जल्दी आए जिस दिन देश का हर बच्चा हिंदी में बात करे। हिंदी पढ़े और लिखे। काश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ही भाषा हो सिर्फ और सिर्फ हिंदी। तो क्यों....समझ गए न सर.... तो अब हम भी निकल लेते हैं अपने घर। तो कल फिर आपसे मुलाकात होगी तब तक के लिए जै....जै।
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