मज़ा मारैं गाज़ी मियां

खटर-पटर

निखट्टू-

संतों... हमारे गांवों में एक कहावत कही जाती है कि - मजा मारैं गाज़ी मियां, धक्का सहैं मुज़ावर? यानि किसी और की कमाई पर ऐश करना।  देश की संसद से लेकर विधान सभाओं तक यही एक चीज देखने को मिल रही है। जिस संसद को हमारे चुने हुए सांसद हंगामा करके रोके हुए हैं, उसके ऊपर होने वाले करोड़ों का खर्च जनता की जेब से जाता है। ऐसे में हमारी मोटी खोपड़ी में एक सवाल रह-रह कर आता है कि आखिर जब प्रधानमंत्री जी इतनी बड़ी सर्जिकल स्ट्राइक कर ही रहे हैं, तो फिर लगे हाथ ये भी फैसला हो जाना चाहिए, कि आखिर मोटा वेतन और भत्ता लेने वाले सांसदों के संसद की कार्यवाही रोकने का $खामियाज़ा देश की जनता क्यों भुगते? उसने क्या बिगाड़ा है? मोटी तनख़्वाह और भत्ते लें ये और ऊपर से बिना काम के कार्यवाही रोक कर लालबत्ती वाली गाडिय़ों में घूमें। पैसे जनता की जेब से जाएं? अरे भाई हम अगर काम नहीं करेंगे तो हमें तनख्वाह कौन देगा? लेकिन इसी को कहते हैं लोकतंत्र की ल_ाशाही....यहां ऐसे भी लोग रहे हैं जिन्होंने बिना काम किए पूरी जिंदगी आराम से तनख़्वाह भी ली, रिटायर्ड हुए तो पेंशन भी उठाई और पूरी जिंदगी बिना टेंशन के टशन से जिए। ऐसे भी लोगों को जानता हूं जो ईमानदार हैं, जहां -तहां धक्के खाते फिरते हैं। जिसकी मर्जी होती है वही धकिया देता है। थाने जाने पर थानेदार गालियां देकर भगा देता है। बेचारों की कोई नहीं सुनता है। जो जहां मौका पाता है वहीं पकड़कर रूई की तरह धुनता है। यही हाल है देश के किसानों का उनकी भी सुनने वाला असल में कोई नहीं है। आदिवासियों का भी वही हाल है। यूं तो ये राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र कहे जाते हैं, मगर जैसे ही सुविधाओं की बात आती है तो चारों ओर सन्नाटा पसर जाता है। इनके हिस्से का गरीबी रेखा का राशन कोई और खाता है। बस्तर में गरीबों के राशन का कनस्तर डॉक्टरों और इंजीनियरों के घरों में जाता है। आदिवासी यहां कुछ भी नहीं पाता है, क्योंकि उसका तो नाम ही गरीबी रेखा वाले रजिस्टर में दर्ज नहीं है। सवाल तो ये उठता है कि ये आखिर गलती किसकी है? शासन के उन तथाकथित ईमानदार अधिकारियों की जिनको छत्तीसगढ़ शासन छठवां वेतनमान तान-तान के दे रहा है। ऐसे अधिकारियों के निकम्मेपन का नुकसान इन गरीब आदिवासियों को  भोगना पड़ रहा है। इनको न तो ढंग का राशन, न केरोसीन,इनके बच्चों को न मिल रही है ढंग की पढ़ाई और न ही दवाई। यानि हमारे संविधान में प्रदत्त अधिकार भी इनको मयस्सर नहीं है। शिक्षा का अधिकार इनके पता नहीं किस ओर से निकल जाता है, हमारी तो समझ में बिल्कुल नहीं आता है। बस्तर का आदिवासी जिंदगी के ऐसे दो राहे पर दौड़ रहा है जिसके एक ओर कुआं तो दूसरी ओर खाई है। इस बात में पूरे सोलह आने सच्चाई है। नक्सलियों की मानें तो पुलिस और पुलिस की मानें तो माओवादी मार देंगे। एक ओर नक्सली तो दूसरी ओर पुलिस वालों का लगा रहता है डर.... तो समझ गए न सर...अब हम भी निकल लेते हैं अपने घर। तो फिर कल आपसे फिर मुलाकात होगी तब तक के लिए जै....जै।
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