हादसों की ह$कीकत





इंदौर से पटना जा रही सवारी गाड़ी के 14 डिब्बे डीरेल्ड, सौ यात्रियों की मौत और 2 सौ से ज्यादा घायल होने की खबर ने अल सुबह ही पूरे देश को हिलाकर रख दिया। बुलेट ट्रेन चलाने का सपना संजोने वाले भारतीय रेल मंत्रालय के लिए यह बात बेहद शर्मनाक है। बिना किसी दूरगामी योजना के बस घोषणाएं करके अपनी पीठ थपथपाना भला कहां की मानवता है? हादसे से पहले क्यों नहीं टूटती रेलवे के अभियंताओं और पथ निरीक्षकों की तंद्रा? सरकार अब इस पर कितनी ही जांच बिठा ले, कितने ही लोगों पर कार्रवाई कर ले। मगर जिस बच्चे का पिता मरा है या फिर जिसकी मां मरी है वो लौटकर आएगी क्या? वे रेल मंत्री के ट्वीट की क्या आरती उतारें? जिनके हाथ पैर इनकी नक्कारापंथी की वजह से कट गए हैं उनकी बाकी की जिंदगी कैसे गुजरेगी? इसका कोई पुष्ट रोडमैप रेल मंत्रालय के पास है क्या? आइंदा ऐसे भयावह रेल हादसे न हों उसके लिए रेल मंत्रालय ने कोई इंतजाम क्यों नहीं किया? अब जब सैकड़ों लोगों की जान चली गई तब ये कार्रवाई की बात कर रहे हैं। जांच कमेटी बनाकर जनता के क्रोध पर पानी डालने की ये घृणित राजनीति आखिर और कब तक? देश के युवाओं का धैर्य अब समाप्ति की ओर है। अब बहाने नहीं सिर्फ और सिर्फ काम चाहिए। वो भी ऐसा कि जिसका प्रभाव जमीनी स्तर पर साफ-साफ दिखाई दे। जो ऐसा नहीं कर सकते उनको तत्काल प्रभाव से निकाल कर बाहर का रास्ता दिखाया जाना चाहिए चाहे वो कोई भी क्यों न हो। रेल मंत्रालय की मंशा दशा भी जनता की समझ में आ रही है। इसका भी अब निजीकरण करने की ओर सरकार आगे बढ़ रही है। पूरे मंत्रालय का न सही मगर किश्तों में इसकी भी शुरुआत होने वाली है। लगातार लोगों को हो रही समस्याओं से अब आम आदमी तंग आ चुका है। रेलवे किराए के पूरे पैसे लेकर भी जनता के साथ कितनी बड़ी ठगी कर रही है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पूरे पैसे देने वाले यात्रियों को सीट के नाम पर ठेंगा दिखा दिया जाता है। पूरा पैसा चुकाने वाला यात्री रेलवे की फर्श गमछा और चद्दर बिछाकर अपनी यात्रा पूरी करता है। जनरल डिब्बे में पुलिस वाले खुलेआम वसूली करते हैं। इसमें उमडऩे वाली भीड़ की परेशानियों को क्या कभी रेलमंत्री ने  महसूस किया?
आम आदमी सरकार को पैसा इस लिए देता है कि उसको सुविधाएं मिलें। पूरे पैसे लेकर लोगों को असुविधाएं देने वाले विभाग का नाम रेल मंत्रालय है। मोटी तनख्वाह लेकर सोने वाले साहबों को ये तक नहीं पता कि उनकी जिम्मेदारी कितनी है? जो अधिकारी अपना काम भी सलीके से पूरा नहीं कर सकते। जिनको कुर्सियों पर ऊंघते रहने की आदत है ऐसे लोगों को सरकार आखिर बाहर का रास्ता क्यों नहीं दिखाती? पैसे देकर कामचोर पालने की नीति से अब रेलवे मंत्रालय को तौबा करना होगा। ऐसे भयावह हादसों के जिम्मेदारों को देश अब और बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है। ऐसे में रेल मंत्री के पास दो ही विकल्प हैं। या तो वे खुद अपने मंत्रालय का कामकाज सुधार लें। नहीं तो आने वाले चुनाव में जनता उनको सुधार देगी।

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