धांय-धांय पर फांय-फांय
खटर-पटर
-निखट्टू
पिछले कई दशकों से छत्तीसगढ़ में नक्सली लगातार उत्पात मचाए हुए हैं। जब भी कोई मौका मिलता है नक्सली विनाश का खेल खेलते हैं। जहां भी सुरक्षाकर्मी उनके पेंच में फंसते हैं बस... धांय-धांय कर देते हैं। उसके बाद तो बचने का सवाल ही पैदा नहीं होता। हमारे कितने भी जवान शहीद हों तो कोई बात नहीं। मगर जैसे ही हमारे जवान कहीं पुष्ट सुराग पाने पर हमला करके दस-बीस नक्सलियों को मार गिराते हैं। अचानक राजधानी में पता नहीं कहां से उस धांय-धांय पर फांय-फांय करने वाले आ जाते हैं। इनमें कुछ तथाकथित साहित्यकार और कुछ मानवाधिकारवादी बताए जाते हैं। अफसोस तो तब और भी ज्यादा होता है जब विधान सभा में भी कुछ पूर्वाग्रह ग्रसित राज्य के लायक विधायक भी नक्सलियों की हिमायत करने खड़े हो जाते हैं। ये यहां सियासत के फेर में फहियाते हैं। ऐसा लगता है गोया उनको आम जनता ने नहीं बल्कि नक्सलियों ने वोट देकर यहां पहुंचाया हो? जब नक्सली किसी गरीब आदिवासी की गला रेतकर हत्या कर देते हैं तो ये मानवाधिकारवादी कहां गुम हो जाते हैं किसी को भी पता नहीं चलता। हमारा माओवाद से कोई विवाद नहीं है, मगर ऐसा करने वालों की अनदेखी करने की इजाजत हमारा पेशा कतई नहीं देता। जो हमारे ही युवाओं को देश और सरकार के प्रति भड़का कर अपना काम निकालते हैं। उनको असामाजिक कार्यों में लगाते हैं। उनके हाथों में बंदूक थमाते हैं। स्कूलों और कालेजों को सिर्फ इस लिए तोड़ देते हैं कि अगर ये शिक्षित हो गए तो उनकी दुकान बंद हो जाएगी। ऐसे लोगों का विरोध होना लाजिमी है। जो देश के कानून और वहां के लोकतंत्र की इज्जत नहीं करते तो उनको इस देश में रहने का भी कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। दोषी तो वे भी हैं जो इस राज्य में रहकर माओवादियों के कल्याण की सोचते हैं। ऐसे लोगों को तो तत्काल कानून के हवाले किया जाना चाहिए। चाहे वह देश हो या फिर राज्य यहां रहने की पहली शर्त देशभक्ति होनी चाहिए। हमारे शरीर में जहां का अन्न और पानी है। हमने जहां जन्म लिया है। उस मातृभूमि का अगर सम्मान नहीं कर सकते। वहां के समाज का सम्मान नहीं कर सकते तो फिर हमें उस जगह रहने का कोई अधिकार नहीं है। बस्तर में अब तेजी से बदलाव की बयार बह रही है। जो ये बताने के लिए काफी है कि जल्दी ही वहां भी देश के दूसरे हिस्सों की तरह अमन -चैन बहाल हो जाएगा। मु_ी भर वे लोग जो किसी तीसरे की शह पर इनको समाज से तोडऩे का काम कर रहे हैं। उनको हमारे सुरक्षाबलों के जांबाजों ने सबक सिखाना शुरू कर दिया है। ये अपने मिशन में कामयाब भी हुए हैं, मगर बस चक्कर वहीं आकर फंस जाता है कि जब कुछ फटीचर ब्रांड फुस्सू खद्दर की झोली टांग कर किसी न किसी हाल में फांय-फांय करने लग जाते हैं। तो दिल करता है कि सुरक्षाबलों के जवानों से निवेदन करूं कि भइया नक्सलियों को थोड़ी देर में मार लेना...पहले तो इनको मारो। क्यों समझ गए न सर.... तो अब हम भी निकल लेते हैं अपने घर...कल फिर आपसे मुलाकात होगी...तब तक के लिए जै....जै।
-निखट्टू
पिछले कई दशकों से छत्तीसगढ़ में नक्सली लगातार उत्पात मचाए हुए हैं। जब भी कोई मौका मिलता है नक्सली विनाश का खेल खेलते हैं। जहां भी सुरक्षाकर्मी उनके पेंच में फंसते हैं बस... धांय-धांय कर देते हैं। उसके बाद तो बचने का सवाल ही पैदा नहीं होता। हमारे कितने भी जवान शहीद हों तो कोई बात नहीं। मगर जैसे ही हमारे जवान कहीं पुष्ट सुराग पाने पर हमला करके दस-बीस नक्सलियों को मार गिराते हैं। अचानक राजधानी में पता नहीं कहां से उस धांय-धांय पर फांय-फांय करने वाले आ जाते हैं। इनमें कुछ तथाकथित साहित्यकार और कुछ मानवाधिकारवादी बताए जाते हैं। अफसोस तो तब और भी ज्यादा होता है जब विधान सभा में भी कुछ पूर्वाग्रह ग्रसित राज्य के लायक विधायक भी नक्सलियों की हिमायत करने खड़े हो जाते हैं। ये यहां सियासत के फेर में फहियाते हैं। ऐसा लगता है गोया उनको आम जनता ने नहीं बल्कि नक्सलियों ने वोट देकर यहां पहुंचाया हो? जब नक्सली किसी गरीब आदिवासी की गला रेतकर हत्या कर देते हैं तो ये मानवाधिकारवादी कहां गुम हो जाते हैं किसी को भी पता नहीं चलता। हमारा माओवाद से कोई विवाद नहीं है, मगर ऐसा करने वालों की अनदेखी करने की इजाजत हमारा पेशा कतई नहीं देता। जो हमारे ही युवाओं को देश और सरकार के प्रति भड़का कर अपना काम निकालते हैं। उनको असामाजिक कार्यों में लगाते हैं। उनके हाथों में बंदूक थमाते हैं। स्कूलों और कालेजों को सिर्फ इस लिए तोड़ देते हैं कि अगर ये शिक्षित हो गए तो उनकी दुकान बंद हो जाएगी। ऐसे लोगों का विरोध होना लाजिमी है। जो देश के कानून और वहां के लोकतंत्र की इज्जत नहीं करते तो उनको इस देश में रहने का भी कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। दोषी तो वे भी हैं जो इस राज्य में रहकर माओवादियों के कल्याण की सोचते हैं। ऐसे लोगों को तो तत्काल कानून के हवाले किया जाना चाहिए। चाहे वह देश हो या फिर राज्य यहां रहने की पहली शर्त देशभक्ति होनी चाहिए। हमारे शरीर में जहां का अन्न और पानी है। हमने जहां जन्म लिया है। उस मातृभूमि का अगर सम्मान नहीं कर सकते। वहां के समाज का सम्मान नहीं कर सकते तो फिर हमें उस जगह रहने का कोई अधिकार नहीं है। बस्तर में अब तेजी से बदलाव की बयार बह रही है। जो ये बताने के लिए काफी है कि जल्दी ही वहां भी देश के दूसरे हिस्सों की तरह अमन -चैन बहाल हो जाएगा। मु_ी भर वे लोग जो किसी तीसरे की शह पर इनको समाज से तोडऩे का काम कर रहे हैं। उनको हमारे सुरक्षाबलों के जांबाजों ने सबक सिखाना शुरू कर दिया है। ये अपने मिशन में कामयाब भी हुए हैं, मगर बस चक्कर वहीं आकर फंस जाता है कि जब कुछ फटीचर ब्रांड फुस्सू खद्दर की झोली टांग कर किसी न किसी हाल में फांय-फांय करने लग जाते हैं। तो दिल करता है कि सुरक्षाबलों के जवानों से निवेदन करूं कि भइया नक्सलियों को थोड़ी देर में मार लेना...पहले तो इनको मारो। क्यों समझ गए न सर.... तो अब हम भी निकल लेते हैं अपने घर...कल फिर आपसे मुलाकात होगी...तब तक के लिए जै....जै।
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