हवा खराब है


खटर-पटर



निखट्टू
संतों....हवा इंसान ही नहीं मशीनों और सभी प्रकार के जीवों के लिए एक बेहर जरूरी चीज है। कहते भी हैं कि एक सांस आई-आई नहीं तो हो गया खेल खत्म। हिंदी में इसका प्रयोग मुहावरों में किया जाता रहा है। जब तक सांस है तब तक आस है। किसी बड़े को सामने देखा तो हवा खराब हो गई। कहीं कुछ झंझट-झमेला शुरू हुआ तो कहते हैं कि हवा बिगड़ रही है। इन सब के अलावा अब एक नया मामला सामने आया है। बता रहे हंै कि नई दिल्ली की हवा इन दिनों कुछ ज्यादा ही खराब हो गई है। इसका कारण भी बताया गया कि हरियाणा और पंजाब में धान की पारली यानि पुआल को खेतों में ही जलाया जाना। उसके साथ ही साथ दीपावली पर बड़ी तादाद में पटाखों का छूटना। अच्छा इन पटाखों के छूटने से अब लोगों की सांसें छूटती सी महसूस हो रही है। हवा में प्रदूषण का स्तर काफी बढ़ता जा रहा है। ऐसे में लोगों का सांस लेना भी दुश्वार होता जा रहा है। अब जब हालात बिगड़ चुके तो अदालत को भी ये बात याद आई। उसने भी सरकार को जमकर फटकार लगाई। और अदालत इससे ज्यादा कर भी क्या सकती है? ऐसा चीन में होता है तो तत्काल थर्मल पॉवर स्टेशन बंद कर दिए जाते हैं। सड़कों पर एअर प्यूरीफॉयर लगा दिए जाते हैं। लोगों को सुरक्षा के उपाय अपनाने को कह दिया जाता है। आश्चर्य है कि देश की राजधानी में ऐसा कुछ हुआ मगर सरकार ने कुछ भी नहीं किया। यानि सुरक्षा के नाम पर निल्ल बटा सन्नाटा। सरकारी अधिकारियों और नेताओं को बस अपने-अपने वेतन और अपने-अपने परिवार से मतलब है। उनको देश और देश की जनता से कोई लेना देना नहीं है। यानि अपना काम बनता तो भाड़ में जाए जनता। ऐसे लोगों को हमारे देश में सातवां वेतनमान दिया जा रहा है। ये ज्यादा पढ़े लिखे लोग हैं। ऐसे लोगों के हाथों में हमने हमारे लोकतंत्र की व्यवस्था दे रखी है। दिल्ली के एक अस्पताल के आंकड़ों पर अगर य$कीन किया जाए तो दिल्ली में हर तीसरे आदमी का फेफड़ा खराब है। सरकार सिर्फ टैक्स लेकर रिलैक्स कर रही है। और अब इनकी लापरवाही की वजह से आम जनता मर रही है। ऐसे मे सवाल उठना चाहिए कि आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है? ऐसे लोगों को क्यों नहीं चिन्हित कर उनपर कार्रवाई की जाती। अब अगर ये हाल देश की राजधानी का है तो दूरस्थ केरल के अधिकारियों में इसका क्या संदेश जाएगा? यही कारण है कि प्रदूषण ही नहीं तमाम व्यवस्थाएं सड़ चुकी हैं। अगर इसको नए सिरे से सुधारा नहीं गया तो फिर तो इस देश का कुछ भी नहीं किया जा सकता। यहां के अधिकारी-कर्मचारी काम से ज्यादा समस्याओं को टरकाने में विश्वास रखते हैं। उनकी पूरी कोशिश होती है कि समस्याओं को दूध पिलाओ और सुला दो। कौन जाए भला काम करने? दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के तंत्र की हालत देखकर हम तो गए डर। क्यों समझ गए न सर.... तो अब हम भी निकल लेते हैं अपने घर। क्यों....अरे भाई 3 बार ठकुराइन का फोन आ चुका है। इसके बाद तो गुस्से से ऐंठ जाएंगी, और अब मोबाइल नहीं पिस्टल निकाल कर बैठ जाएंगी। तो ये देखकर हमारी भी हवा खराब ही समझिए। अब तो भाई मैं चलता हूं .. कल फिर आपसे मुलाकात होगी, तब तक के लिए जै....जै।

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